Monday 17 September 2012

संपूर्ण


क्या यही है तुम्हारा पौरुष,
यही है हकीकत...
इसी दर्प में जी रहे हो तुम
कि हर रात जीतते हो तुम
हार जाती हूं मैं
फिर सुकून भर नींद लेते हो तुम
सिसकती हूं मैं...
जीतना मैं भी चाहती हूं
सुकून भरी नींद मेरी आंखों को भी प्यारी है
लेकिन, फर्क है तुम्हारी जीत और मेरी जीत में...
घंटो निहारना चाहती हूं तुम्हें
एक निश्छल बच्चे की तरह
सुनाना चाहती हूं दिन भर की बातें,
नहीं चाहिए मुझे जड़ाऊ गहने,
बस एक बार..बस एक बार प्यार से मुस्कुरा दो
मेरी किसी नाराजी पर..
आॅफिस से लौटते में
कभी लेते आओ महकता गजरा
फिर कैसी खुमारी से भर उठेगा
तन और मन।
अब तक आधा पूर्ण किया है तुमने मुझे
संपूर्णता की परिधि में तन के साथ मन भी शामिल है..
जीत जाने दो मुझे भी
हो जाने दो मुझे भी पूर्ण
आखिर मेरी पूर्णता बिना तुम संपूर्ण कहां?
तुम्हारा अस्तित्व मुझसे ही तो है
क्योंकि मैं सिर्फ पत्नी नहीं हूं तुम्हारी
अर्धांगिनी हूं, नारी हूं, रचयिता हूं।

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